Jalandhar (punjab e news ) आम आदमी पार्टी और सुखपाल खैहरा के बीच जो तनाव चल रहा है यह कोई नई बात ही है। अक्सर कई नेता बड़ी पार्टी ,बड़े पद छोड़ कर अलग हुए। लेकिन क्या वह उसके बाद सफल हुए हैं ? पिछले पांच छे सालों में जो सियासी घटनाक्रम हुए है। इस लेख में उनके ज़िक्र करके नेताओं की मौजूदा स्तिथि के बारे में जानकारी दी जाएगी।
पंजाब की राजनीति में बादल परिवार का नाम काफी ऊपर रहा है। मनप्रीत बादल उसी परिवार से हैं। पूर्व मुख्या मंत्री सरदार प्रकाश सिंह बादल के भाई गुरदास बादल के बेटे हैं मनप्रीत बादल। मनप्रीत की अपने भाई सुखबीर के साथ कभी भी सियासी रज़ामंदी नहीं रही।इसकी कारण वह 2010 सरकार और मंत्री पद छोड़ आए। मार्च 2011 में उन्होंने अपनी पीपल्स पार्टी ऑफ़ पंजाब का गठन किया। 'आप ' के युवा समर्थकों को बता दूँ की मनप्रीत की इसी पार्टी के गठन के समय में ही पंजाब में बदलाव की लहर उठी थी। विदेश से लेकर पंजाब के गाँवों में पी पी पी का चुनाव चिन्ह 'पतंग' उड़ रही थी। लेकिन अकाली दल और कांग्रेस के सामने वह टिक न पाए। पार्टी के गठन के मात्र दो साल के भीतर ही उन्होंने पंजाब के चुनावों में छलांग लगा दी जोकि घातक साबित हुई। मनप्रीत खुद गिदड़बाहा तथा मौड़ सीट से चुनाव हार गए। पार्टी को पुरे प्रदेश में आठ प्रतिशत के करीब वोट मिले।
अपने राजनितिक भविष्य को भांपते हुए मनप्रीत समय गंवाएं 15 जनवरी 2016 को कांग्रेस का हाथ थाम लिया। राहुल गाँधी ने उन्हें पार्टी की सदस्य्ता सौंपी। मनप्रीत का फैसला सही था। आज वह कैप्टन सरकार में वित् मंत्री हैं।
मनप्रीत तो कांग्रेस में आ कर अपनी भविष्य बचा गए। लेकिन कांग्रेस के एक ऐसे नेता भी थे जिन्होंने 35 साल तक पार्टी की सेवा करने के बाद उसे छोड़ दिया या यूँ भी समझ लीजिये की पार्टी ने उन्हें चलता कर दिया। यह थे जगमीत बरार। सुखबीर बादल को चुनावों में ज़िन्दगी में केवल एक बार हार मिली है। बरार उन्हें हराने वाले एकमात्र नेता थे। गैर ज़रूरी बयानों और पंजाब के नेताओं से दुश्मनी के चलते जगमीत बरार कांग्रेस से बाहर हो गए। वरिष्ठ नेता होने के चलते उन्हें अपने आप पर बहुत भरोसा था लेकिन कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी का बैनर हटते ही उन्हें ज़मीन नज़र आ गई। 2015 में पार्टीविहीन हुए बरार ने सियासी कद बचाने के लिए कई पार्टियों के दरवाज़े खटखटाए लेकिन किसी ने भी उन्हें वेलकम नहीं कहा। ब्यान बड़े बड़े थे लेकिन दर्शन छोटे। थक हार कर उन्होंने आवाज़ ए पंजाब मंच का गठन कर दिया। बीर दविंदर जैसे उनके करीबी मित्र भी एन समय पर उनका साथ छोड़ गए। पंजाब घुमा लेकिन उनकी आवाज़ किसी ने नहीं सुनी। बात नहीं बनी तो साहिब ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को पंजाब ले आए। मिला फिर भी कुछ नहीं। बरार अब तृणमूल कांग्रेस भी छोड़ चुके है और आज कल सियासी अज्ञातवास पर है।
अगला नाम है सुच्चा सिंह छोटेपुर। यह साहिब 1975 में अपने गाँव छोटेपुर के सरपंच बने। यह गुरदासपुर में पड़ता है। छात्र राजनीति से पंजाब की राजनीती में आए सुच्चा 1985 में सुरजीत सिंह बरनाला सरकार में मंत्री भी रहे। कैप्टन अमरिंदर सिंह से इनका काफी याराना रहा है। 2009 में कांग्रेस में आ गए थे। फिर ज़्यादा देर बात नहीं बनी। आम आदमी पंजाब में आई तो यह प्रदेश के पहले कन्वीनर बने। पार्टी के साथ साथ इनकी भी खूब चढ़त हुई। और यही चढ़त इनके पतन का कारण बनी। मुख्यमंत्री पद का संभावित उम्मीदवार बनता देख इनके सर पर इल्ज़ामों का टोकरा रख दिया गया। कहा गया की नेता जी लोगो से काम करवाने के बदले पैसे लेते है। पार्टी फंडो को अपनी जेब में डालते है। स्टिंग की चर्चा भी हुई। वीडियो बनी है लेकिन उसे आज तक सिवाए केजरीवाल एन्ड कंपनी के किसी भी ने नहीं देखा। इतना ही नहीं कार्रवाई करने से पहले खुद छोटेपुर को भी उनके खिलाफ सबूत नहीं दिखाए गए। रुस्वा हो कर निकले सुच्चा सिंह छोटेपुर ने भी उपरोक्त नेताओं की तरह अपना मंच बनाया हुआ है। नाम है अपना पंजाब पार्टी।
यह थे वह चंद लोग जो पंजाब की सियासत में किस तरह डांवाडोल हुए। अब अगर सुखपाल खैहरा कोई फैसला लेते हैं तो इन्हे इन नेताओं से कुछ सबक लेना होगा। यह लेख उनके लिए ही है।